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Third battle of Panipat in Hindi

पृष्ठभूमि: 14 जनवरी 1761, मकर सक्रांति का दिन, स्थान पानीपत।

पानीपत का तीसरा युद्ध 14 जनवरी, 1761 को  पानीपत में दिल्ली से लगभग 90 किमी उत्तर में मराठा साम्राज्य, जिसका नेतृत्व  रहे थे, पेशवा बालाजी बाजीराव के चचेरे भाई, सदाशिव राव भाऊ  और अफगानिस्तान के अहमद शाह अब्दाली जिसे अहमद शाह दुर्रानी भी कहा जाता है, के बीच हुआ था। अब्दाली के साथ रोहिला अफगान नजीबउद्दौला और अवध के नवाब शुजा-उद-दौला थे ।

पानीपत का तीसरा युद्ध अठारहवीं सदी का सबसे भयानक युद्ध था। एक ही दिन मे इस युद्ध में एक लाख से ज्यादा लोगो की मृत्यु हुई थी। पानीपत की हार मराठो की लिए एक बहुत बड़ा धक्का था। मराठो के पास एक शक्तिशाली सेना थी, ताकतवर तोपखाना, युधो का लंबा अनुभव पर हालत मराठो के साथ नहीं थे। आज हम इतिहास के पन्नो से उन कारणो को जानेंगे जो मराठो की हार का कारण बने थे।

मुग़ल मराठा अहमदिया करार

1752 मे मराठो तथा मुग़लो की बीच एक समझोता हुआ था, जिसे अहमदिया करार के नाम से जाना जाता है। इस करार के तहत मराठो को प्रमुख रूप से  आगरा अजमेर की सुबेदारी, पंजाब & सिंध से कर  वसूल करने की अनुमति मिली थी, बदले मे, मुग़लो की अफगानों,  राजपूतो , आदि से रक्षा की ज़िम्मेदारी मराठो की थी।

अंताजी मानकेश्वर को दिल्ली की रक्षा की ज़िम्मेदारी सौपी गई, 50,000 हजार मराठा सेना ने दिल्ली मे कैंप बना लिया,  1757 तक सब ठीक रहा, पेशवा ने  दक्षिण मे अभियान के लिए दिल्ली से मराठा  सेना को बुला लिया, इसी का फायदा उठा कर रोहिला अफगान नजीब ने अहमद शाह अब्दाली को दिल्ली बुला लिया, बिना किसी बड़ी लड़ाई के बिना ही दिल्ली पर अहमद शाह अब्दाली का कब्ज़ा हो गया, अब्दाली ने दिल्ली तथा मथुरा मे खूब लुट मचाई, नजीब को दिल्ली का रखवाला बना अब्दाली अफगानिस्तान लोट गया ।

1758 मे पेशवा बाजीराव ने अपने छोटे भाई रघुनाथ राव के नेतृत्व  मे मराठा सेना को दिल्ही भेजा,  विशाल मराठा सेना , जिसमे कई वरिष्ठ मराठा सरदार थे , जैसे मल्हार राव होलकर, सिंधिया आदि, बहुत आसानी से मराठो ने लाल किले को अपने कब्जे मे ले लिया, तथा नजीब को गिरफ्तार कर लिया गया, रघुनाथ राव तत्काल नजीब को मार देना चाहते थे, पर वरिष्ठ मराठा सरदार मल्हार राव होल्कर नजीब को अपना बेटा मानते थे। मल्हार राव होल्कर की सिंधिया परिवार  से बहुत नहीं बनती थी, उधर नजीब की भी सिंधिया परिवार  से नहीं बनती थी, जो की एक उत्तर मे एक प्रमुख मराठा सरदार थे, इसी कारण नजीब हमेशा मल्हारराव होल्कर को बहुत सम्मान देता था। मल्हार राव होल्कर के कारण रघुनाथ राव को नजीब को छोड़ना पड़ा।

रघुनाथ राव की यह गलती ना सिर्फ मराठो को बल्कि पूरे भारत को बहुत भारी पड़ने वाली थी। इसका सबसे बड़ा फ़ायदा होने वाला था, उसे जो की इस युद्ध का हिस्सा ही नहीं था,ओर वो थे, ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी।

मराठो की अटक विजय

1758 मे  रघु नाथ राव दिल्ली विजय के बाद, सेना को पंजाब (मोजुदा पाकिस्तान-पंजाब) की ओर ले गए। यह उनकी दूसरी बड़ी गलती थी। अभी तक अब्दाली  और मराठो के बीच कोई सीधी दुश्मनी नहीं थी. अब्दाली अपने आप को सिर्फ पंजाब तक सीमित रखना चाहता थाl रघुनाथ  राव की सेना ने अब्दाली के बेटे जुबेर खान की सेना को हरा दिया, अटक के किले पर मराठा ध्वज फेहरा दिया। लगभग  800-900 साल बाद ऐसा मोका था जब अटक के किले पर किसी भारतीय राजा का अधिकार था। अखंड पंजाब से लेकर पुणे तक मराठो का भगवा लहरा रहा था। जब इसकी खबर पुणे पहुची तो पेशवा की ख़ुशी की सीमा नहीं रही, शिवाजी महाराज का स्वराज का सपना पूरा हो  चूका  था ।

पर जैसे की हमने बोला, अब्दाली पर सीधा हमला रघुनाथ राव को बहुत बड़ी गलती थी,  बिना गंभीर  योजना के सीधे अब्दाली की सेना से लड़ना सही नहीं था। मराठो युद्ध भी जीते ओर जमीन भी   पर आगे की कोई योजना नहीं थी। रघु नाथ राव ने पंजाब की ज़िम्मेदारी सब्बा जी सिंधिया को  सोपी ओर अपनी प्रमुख सेना को वापस पुणे की ओर कुच करने का आदेश दिया। पर आबदली तो अभी भी जीवित था ओर उसकी सेना भी ।

यहाँ पर रघुनाथ राव को स्थाई प्रबंद करना था, परियाला के आला सिंह तथा महाराज सूरजमल जाट उत्तर मे प्रमुख शक्तिया थी, पर मराठो ने भविष्य का उचित आकलन नहीं किया।

पंजाब के लोगो ने उस समय कोशिश की मराठो की प्रमुख सेना यहाँ ओर रुके तहा आबदली को समाप्त करे , मराठा  उस समा ऐसा कर सकते थे अब्दाली  कमजोर था, ओर मराठो के  दिली से पंजाब तक रसद तथा जन समर्थन था,  पर जैसा की हमने उपर लिखा, यह एक युद्ध न होकर एक रेड (RAID) की तरह था, मराठे आए, युद्ध जीता ओर वापस चले गए, पर इसका परिणाम यह हुआ की अब अब्दाली मराठो का जानी दुश्मन बन बैठा था…उसे मालूम था की अगर अब उसने मराठो की दिल्ली से नहीं हटाया तो वो देर सबेर फिर अपनी सेना पंजाब मे भेजेंगे,  अब्दाली पंजाब से अपनी पकड़ कमजोर  नहीं होने देना चाहता था।

1759 मे  आबदली ने अपना  अभियान शरू किया, पहले सब्बा जी  सिंधिया , जानकोजी  सिंधिया, मल्हार राव होलकर सहित प्रमुख मराठा सरदारों को हरा कर पंजाब पर अब्ना कब्ज़ा वापस ले लिया।

बुराड़ी घाट की लड़ाई- ९ जनवरी १७६०

जनकोजी छोटे थे, सिंधिया  परिवार के प्रमुख दत्ता जी सिंधिया  थे, रघुनाथ राव ने नजीब को जीवन दान दिया था, नजीब ने हमेशा मराठो का साथ देने की कसम खाई थी , दत्ता जी ने नजीब को गंगा के उपर एक पुल बनाने का काम सोपा, पर नजीब उसे लगातार टालता रहा, दत्ता जी जी समझ चुके थे, की नजीब उन्हें धोखा  दे रहा है,  दत्ताजी ने नजीब की घेराबंदी कर दी, पर नजीब बाख कर निकलने मे कामयाब रहा,  दत्ता जी की सेना ने नजीब के कुछ सैनिको को पकड़ा ,  जो की अब्दाली से संपर्क कर रहे थे ।

मराठा सेना की सबसे बड़ी ताकत थी, उनकी गुप्तचरी, पर अब लगातार मराठा गुप्तचरी फेल हो रही थी. दत्ता जी को पता ही नहीं चल की अब्दाली पंजाब जीत चूका हाँ, ओर दिल्ली की ओर बड रहा है ।

अब्दाली ओर नजीब की सेना मिल गई, दत्ता जी को जैसे ही यह  सूचना मिली, उन्होंने अपनी सेना को युद्ध के लिए मोर्चे पर भेजा, पर समय कम था, वो एक बड़ी सेना को एकत्र नहीं कर सके, दत्ताजी जी ने मदद के लिए होल्कर महाराज को सदेश भेजा , पर उनके पास रुकने का समय नहीं था, अब्दाली तथा नजीब की सुयक्त सेना ने आसानी से दत्ता जी की सेना को हरा दिया, दत्ता जी जी मारे गए, जबकि जानकोजी, तुको जी, महादजी जान बचा कर निकालने मे सफल रहे ।

मराठो का पुणे से भाऊ के नेतृत्व मे सेना भेजना

यह समाचार जब पुणे मे पेशवा बाजीराव को मिला,तो वो आग बबूला हो गए, उन्होने तत्काल मंत्री समहू की बैठक बुलाई ओर सदाशिव राव को एक  बड़ी सेना के साथ रवाना किया, मराठा सेना के साथ पेशवा पुत्र विश्वास राव, मल्हार राव होलकर, तुकोजी, जनकोजी, महादजी, गायकवाड, पवार, समशेर बहादुर सहित २७ मराठा सरदार तथा उनकी सेना थी।

रघुनाथ राव चाहते थे की अक बार फिर उन्हें अभियान का प्रमुख बनाया जय,  पर पेशवा बाजीराव उनकी गलतियों (रघुनाथ राव के उत्तर अभियान पर आर्थिक रूप से मराठो को काफी नुकसान हुआ था)  की वजह से उनसे खुश  नहीं थे, हलाकि यह सही था, की रघुनाथ राव ने बहुत गलतियाँ की थी, पर अब उनके पास उत्तर मे  युद्ध का अनुभव  था, दूसरा रघुनाथ राव समय के अनुसार अपने आप को बदलने मे सक्षम थे, जबकि सदाशिव अपनी बातों  ओर  इरादो के पक्के थे, पर एक कुशल कुतनितिग नहीं थे, अब्दाली से युद्ध के लिया ऐसा कमांडर होना था, जो कूटनीति मे  भी आला दर्जे का हो ।

14 March 1760, को भाऊ के नेतत्व मे मराठा सेना, अब्दाली तथा नजीब को ख़तम करने के लिए पुणे से चली, उन दिनों सेना के अभियान के साथ, तीर्थयात्री भी साथ जाते थे, लगभग 1 लाख तीर्थ यात्री भी सेना के साथ उत्तर मे तीर्थ दर्शन के लिए साथ हो चले, भाऊ इसके खिलाफ थे पर पेशवा के कहने पर मान गए

60-70 हजार की सेना, 1 लाख यात्री, ओर लगभग इतने ही जानवर, भारी तोपे, नतीजा यह हुआ की मराठा अब बहुत धीमी गति से चल रहे थे। मार्च की निकली सेना, जुलाई मे दिल्ली पहुची, अब्दाली भी दिल्ली मे था, यमुना के एक तरफ अब्दाली तथा दूसरी तरफ मराठा सेना।

मराठो का कुंजपुरा अभियान

यमुना मे पानी काफी था। सो दोनों पक्ष पानी उतारने का इंतज़ार करने लगे। इसी बीच मराठो ने लाल किला जीत लिया , यहा बहुत आधिक अफगान नहीं थे, सो 1-2 दिन मे ही लाल किला मराठो के कब्जे मे आ गया, मराठा सेना युद्ध के अभियान के लिए उत्तर से मिलने वाले कर पर निर्भर थी, पर उत्तर से प्रयाप्त  मात्रा  मे  कर नहीं मिल पा रहा था। मराठो को पता चला की अब्दाली का काफी खजाना तथा आनाज  भंडार कुंजपुरा के किले मे सुरक्षित रखा है ।

भाऊ ने सेना को कुंजपुरा चलने का आदेश दिया, यहा पर दो बहुत बडी गलतियाँ हुई, जाट महाराज सूरजमल ओर  होलकर महाराज का सुझाव था, की अब तीर्थ यात्री तथा भारी  तोपों को दिल्ली  मे ही छोड़ देना चाइए, महाराजा सूरज माल ने कहा की हम जितना दिल्ली से दूर जायेंगे , उतना ही रसद के रास्ते लंबे होते जायेंगे  अब्दाली के साथ, नजीब ओर शुजा-उद-दौला की सेना भी है, सो आगे सिर्फ सैनिक ही जाए।

महाराज सूरजमल का मराठो का साथ छोड़ना

पर तीर्थयात्रियो का कुरक्षेत्र कुंड मे स्नान का मन था, सो भाऊ ने उनकी यह मांग अस्वीकार कर दी। महाराज सूरज माल एक वचन ओर चाहते थे , की युद्ध विजय के बाद दिल्ली पर उनका अधिकार स्वीकार  कर लिया जाए । भाऊ ने यह मांग भी नाही मानी ।

जबकि महाराज सूरजमल की यह मांग वास्तव मे एक फायदा का सोदा थी,  महाराज सूरजमल  उत्तर मे एक मात्र बड़ी ताकत थे, जो अब्दाली से सीधे टकराने की हिम्मत रखते थे,  दिल्ली विजय के बाद महाराज सुरजमल ने मराठो का साथ छोड दिया, यह भाऊ की एक बहुत बड़ी गलती थी, उत्तर मे एक मात्र सहयोगी भी अपनी साथ नहीं रख सके ।

मराठो की भारी तोपों का कुंजपुरा मे अब्दाली की सेना  बहुत शीघ्र कुंजपुरा पर मराठो का कब्जा हो गया,  कुतुब शाह, जिसने दत्ताजी  सिंधिया का  सिर कलाम किया था, मराठो के कब्जे मे आ  गया । मराठो ने कुतुब शाह का सिर कलाम कर दिया, ओर बड़ी धूम धाम से  दशहरा  का पर्व मनाया, यह मराठा फोजों का आखरी उत्सव साबित हुआ, इसके बाद तो जैसे सब कुछ किस्मत ने मराठो के खिलाफ  लिख दिया था।

एक ओर  बड़ी गलती मराठो से कुंजपुरा मे  हुई, लगभग 2000 अफगान सैनिको ने आत्म समर्पण कर दिया था, अफगान सैनिक अपने मुह मे  घास रख कर किले से निकले, ओर जीवनदान की आपील की, मराठो ने न सिर्फ उन्हे छोड दिया, बल्कि अपने साथ युद्ध अभियान मे भी शामिल कर लिया, अंताजी मानकेश्वर  ने उन्हें अपनी सेना मे ले लिया।

अब जैसे की हमने लिखा, यहाँ से सब कुछ मराठो के खिलाफ होने वाला था, मराठो ने कुंजपुरा से कुरुक्षेत्र जाने का निर्णय किया, अगर वो सीधे दिल्ली आते, या फिर सिर्फ मराठो की एक सैनिक टुकड़ी तीर्थयात्री के साथ जाती। पर ऐसा नहीं हुआ।

अब्दाली का यमुना पर करना

आबदली को जब पता चला की कुंजपुरा पर मराठो की अधिकार हो गया, तथा सारी रसद पर अब मराठो का कब्ज़ा हो गया. अब्दाली यह सुन कर गुस्से से आग बबूला हो गया,  अब्दाली ने अपने सैनिको को हर हाल मे जल्द से जल्द यमुना पर करने का आदेश दिया.

 अफगान सनिको ने दिल्ली से बागपत तक सभी घटो पर यमुना पर करने की कोशिश शुरु कर दी, बागपत के पास एक स्थानीय व्यक्ति की सहयता से अब्दाली यमुना पार करने मे सफल रहा। यह  मराठा गुप्तचरी की इतिहास की सबसे बड़ी असफलता थी। मराठा अपनी गुप्तचरी ओर तेज रफ्तार के लिए जाने जाते थे। परे भाऊ की सेना दोनों ही विभागो मे असफल हो गई, अब्दाली को यमुना पार करने मे लगभग दो दिन लगे, पर मराठा गुप्तचर को कोई भनक तक नहीं लगी, वो मान कर बैठे थे, की अब्दाली दिल्ली के आस पास के घाटो से ही यमुना पार करेगा ।

यमुना मे पानी काफी होने के कारण, अब्दाली को काफी नुकसान हुआ, काफी सैनिक यमुना के तेज बहाव मे बह गाए , अनाज भी ख़राब हुआ, पर अब्दाली जानता था, बिना युद्ध किये ही उसकी जीत निश्चित है, क्योंकिं अब ये युद्ध सिर्फ मजबूत सैनिक ताकत का नहीं था, अब तो यह रसद सामाग्री की उपलधता पर निर्भर था, रसद की अब्दाली को कोई कमी नहीं थी, क्योकि , अवध तथा रोहिल्ल्खंड से उसे आसानी से मिल रही थी|

धीरे धीरे अफगान सैनिक दिल्ली को जाने वाले सभी मार्गो को अबने कब्जे मे लेने लगे. अफगान सैनिको ने चुन चुन कर  मराठा गुप्तचरों को  मारना शुरु  कर दिया , जब मराठो को इस बात की सूचना मिली , उनके पैरो से जमीन ही खिसक गई, जिस बात की कल्पना भी नहीं की थी, वो सच हो चुकी थी ।

यहाँ मराठो ने एक ओर गलती की, वो जानते थे अभी अब्दाली ने सिर्फ यमुना पार की है, दिल्ली तक के  सभी रास्तो की सम्पूर्ण नाकाबंदी इतना जल्दी नहीं हो सकती, कुछ मराठा सरदारों को विचार था, इसी समय अब्दाली पर हमला बोल दिया जाय, पर मराठो ने निर्णय लिया,  अभी हमला करने के बजाय, पानीपत मे रुका जाय, उनका मानना था, 50-60 दिन का राशन है, तब तक पुणे से एक ओर सेना जो  की पेशवा ने वादा किया थी, आ जाएगी  या फिर रसद का इंतजाम पंजाब/दिल्ली से किया जाएगा।

अब्दाली का मराठो की सम्पूर्ण नाकाबंदी करना

कुछ ही दिनों मे अब्दाली ने दिल्ली के सभी रास्ते बंद कर दिए। अब अब्दाली इंतज़ार करने लगा, जब तक मराठा खुद बहार नहीं आते लड़ने के लिए तब तक उनके ऊपर पर कोई हमला ना किया जय। मराठो को पंजाब से भी कोई मदद नहीं मिली, भाऊ के भेजे पत्रों  को भी अब्दाली ने पकड़ लिया, अक्तूबर के  बाद पुणे दरबार को भाऊ का कोई पत्र नहीं मिला, सामान्य तोर पर भाऊ लगातार पत्र लिख कर पेशवा को सब कुछ बता रहे थे, दिल्ली विजय का समाचार आखिरी था, जो पुणे दरबार मे मिला था.  जब अगले एक महीने तक भाऊ का कोई पत्र नहीं मिला तो पेशवा ने 40-50 हज़ार का लस्कर दिल्ली की ओर रवाना किया। पर बहुत ही धीमी रफ्तार से, गुप्तचरी ओर तेज हमला मराठो की दो ताकते थी, मानो जैसे मराठे अपनी इन दोनों ताकत को भूल ही गई।

एक बात बहुत ही ध्यान देनेवाली है, ओर हैरान करने वाली  भी , भाऊ तथा अन्य  मराठा सरदार जब पानीपत मे  फस गए थे, तो भी दिल्ली मराठो क कब्जे मे थी, दिल्ली से पुणे के सभी मार्ग खुले थे, ओर मराठा कब्जे वाले थे. पर दिल्ली किले से भी पुणे कोई सूचना नहीं भेजी गई,

पेशवा बालाजी बाजीराव ने 1751 मे  ताराबाई तथा उनके सहयोगियों की बगावत को रोकने के लिए 400 मील, की दुरी को सिर्फ 13 दिन मे पूरी करी थी। पर दिल्ली दरबार मे बैठे मराठो ने पुणे कोई सूचना नहीं भेजी.

इधर पानीपत मे हालत ख़राब होते जा रहे थे, जानवर मर रहे थे। आसपास के  जंगल भी लकड़ी विहीन हो गए थे, 50-60 हज़ार की सेना, उनके जानवर हाथी घोड़े, 1 लाख के आस पास तीर्थयात्री। मराठो ने अब गुर्रिला युद्ध नीति अपनाते हुए अब्दाली की सेना पर छोटे छोटे आक्रमण शुर कर दिए। गोविंद पंत बुंदेला को रसद पहुचाने तथा, अब्दाली की रसद काटने के लिए बोला गया, कुछ हद तक गोविंद पंत सफल भी हुआ, पर बहुत जल्द अब्दाली  ने न सिर्फ अपनी रसद को सुनिशित किया, बल्कि गोविंद पंत को पकड़ कर मार डाला।  भाऊ के लिए गोविन्द पन्त का मारा जाना , एक बहुत बड़ा धक्का था, गोविंद पंत मराठो की उत्तर मे अन्तिम उम्मीद था ।

मराठा सरदार बलवंतराव मेहेंदेले का मारा जाना

27 नवम्बर 1760 को मराठो को सूचना मिली की एक मस्जिद मे नजीब खान आने वाला है, भाऊ ने  बलवंतराव मेहेंदेले सहित वरिष्ठ सरदारों को को सेना के साथ नजीब पर हमले के लिया भेजा, बलवंतराव भाऊ का दाया हाथ था।
मराठो ने मस्जिद के आस पास घेरा बंदी कर दी. आमने सामने की लड़ाई शुरु हो गई, मराठे, नजीब की सेना पर भरी पड़ रहे थे, लगा  जैसे नजीब आज  पकड़ा ही जायेगा या मारा जाएगा, नजीब के चाचा खली-उल-रहमान युद्ध में मारे गए और रोहिल्ला की तीन हजार से अधिक सेना मारी गई, और जो बच गए उनमें से भी अधिकांश बहुत बुरी तरह घायल हो गए।

तभी एक अनहोनी हुई, एक गोली बलवंतराव को लगी, मराठा जीती हुई बाजी हार गए, बलवंत सिंह के  गिरते ही, मराठो ने हार मान ली, नजीब बच कर निकाल गया, किस्मत सच मे  मराठो से रूठी हुई थी, मराठा कोई छोटे मोटे सिपाही नहीं थे, वह 18 वी शदाब्दी की सबसे ताकतवर सेना थी. बस नियति साथ नहीं थी।

जब भाऊ को पता चल की बलवंत सिंह मारे गई, बलवंत सिंह उनके साले थे। वो पूरी तरह टूट गए, बलवंत सिघ को प्रमुख युद्ध मे , मराठा सेना के  केंद्र की ज़िम्मेदारी संभालनी थी, भाऊ की युद्ध नीति मे बलवंतराव की बहुत बड़ी ज़िम्मेदारी थी…अब भाऊ ने पुणे से मदद की उम्मीद भी छोड दी, ओर अपने आप को कोसने लगे, की अगर पुणे की मदद की बजाय, जब आबदली ने यमुना पार की, तभी हमला किया होता तो आज शायद कुछ ओर ही होता।

भाऊ ने अब कूटनीति का सहारा लेकर , अब्दाली से सम्मान जनक समझोता करने के लिए पंडित काशीराम को अब्दाली के  पास भेजा, पर नजीब के रहते कोई समझोता संभव नहीं था. अब्दाली ने पंडित कांशीराम को कोई सपष्ट उत्तर नहीं दिया ।

13 जनवरी 1761, को सभी मराठा सरदारों ने निर्णय किया, की भूखे मरने के बजाय युद्ध भूमि मे जाया जाए ।

युद्ध का दिन: 14 जनवरी 1761

14 जनवरी 1761: मराठा  सेना निकल पड़ी, सब कुछ मराठो के विपरीत था, पर मन मे होसला था, की एक बार फिर मराठा ध्वज लहरा दिया जाए। हर हर महादेव का उदगोश करती हुई मराठा सेना निकल पड़ी पानीपत की धरती को पवित्र करने के लिए।

दोनों सेना आमने सामने थी,  पहले 1 घंटे मे, मराठा तोपों ने आग बरसाना शुर की, लंबी दूर वाली टोपो ने अब्दाली को काफी नुक्सान किया, नजीब धीरे धीरे अपनी सेना को जानकोजी की सेना की तरफ ले जाने लगा, दूसरी तरफ, इब्राहिम खान गार्दी, के बंदूकची अपने आचुक निशानों से अब्दाली का बाये मोर्चे को पीछे हटने पर मजबूर कर दिया,  पहले दो घंटे मे लगभग 3-4 हज़ार अफगान सेना मारी गई, मराठो के  भी लगबाग 2 हज़ार बंदूकची मारे गए।

मराठा सेना का केंद्र से नेतव करे रहे थे, विश्वास राव (पेशवा बालाजी बाजीराव के पुत्र), भाऊ पीछे से सारे युद्ध  का नियंत्रण कर रहे थे। दोपहर 1:30 तक मराठो ने अदमय साहस का परिचय दिया, दोपहर होते होते अब्दाली का केंद्र पूरी तरह टूट चुका था ।

दिल्ली की ओर जाने वाला रास्ता खुल चुका था, अगर उस समय मराठो के साथ इतने अधिक तीर्थयात्रा तथा महिलाए नहीं होती, वो उसी समय अब्दाली की घेरा बंदी को तोड़ कर दिल्ली की ओर निकाल जाते, या फिर प्रमुख मराठा सरदार भी जा सकते थे, पर मराठे तो सच्चे योधा थे, मराठो की सोच स्पच्ट थी, पहला या तो वो अब्दाली -नजीब को मार दे या खुद मारे जाय।

अब्दाली ने अपना केंद्र टुटा देखा, खुद मोर्चा संभाला, ओर बहुत जल्द उसने अपनी भागती सेना को नियंत्रण मे ले लिया, अब्दाली ने लगभग १० हजार की रिजर्ब सेना को भी मोर्चे पे बुला लिया, इसी बीच यशवंत राव पवार ने अब्दाली एक प्रमुख सहयोगी अताई खान को मार डाला। मराठे धीरे धीरे युद्ध पर नियंत्रण बना रहे थे। तभी दो बड़ी घटनाइ घटित हुई, ओर सब कुछ मराठो क हाथ से निकाल गया ।
भाऊसाहेब ने विट्ठल विंचुरकर (1500 घुड़सवारों के साथ) और दामाजी गायकवाड़ (2500 घुड़सवारों के साथ) को गार्डियों (राइफलमैनों ) की रक्षा करने का आदेश दिया था। हालाँकि,पर दोनों ने अपना धैर्य खो दिया और रोहिल्लाओं से खुद लड़ने का फैसला किया। इस प्रकार,जबकि भाऊ का आदेश था, की अफगानों के मोर्चो मे दूर तक अन्दर नहीं जाना है. रोहिल्ला राइफलमैनों ने मराठा घुड़सवार सेना पर सटीक गोलीबारी शुरू कर दी, जो केवल तलवारों से सुसज्जित थी। इससे रोहिल्लाओं को गार्डिस को घेरने का मोका मिल गया, जो बदत थी, वो सब गवा दी गई ।

अब्दाली की रिज़र्व टुकड़ी के आने से मराठा फोजे दवाब महसूस करने लगी,  मराठे एक तो खाली पेट, ओर अब कोई रिजर्व भी नहीं. दूसरी अनहोनी वो हुई, जिसका अब्दाली एक तरह से मास्टर बन चुका था, पहले दत्ताजी सिंधिया , बलवंतराव, ओर अब विश्वास राव…अब्दाली के निशानेबाज लगातार बड़े मराठा सरदारों को निशाना बना कर गोलीय चला रहे थे, एक गोली विश्वास राव के लगी ओर वो वही मारे गई, जैसे ही भाऊ को यह सुचना मिली, वो अपना आपा खो बैठे…विश्वास सिर्फ 18-20 वर्ष के थे…भाऊ उन्हें अपने बेटे की तरह मानते थे।

भाऊ  अपने हाथी से उतर घोड़े पर बैठे ओर मोर्चे पर काफी अंडर तक चले गए , मराठा सैनिक, भाऊ को हाथी पर न देख , समझे, की कोई अनहोनी हो गई, यह सोच , सैनिको मे भगदड़ मच गई।

बहुत से मराठा सरदारों ने युद्ध भूमि से हटना शुरु कर दिया प्रमुख सरदार जैसे अंताजी मानकेश्वर, दामाजी गायकवाड़, विट्ठल विंचुरकर आदि युद्ध से निकल गए.  आपको याद होगा ,  2000 अफगान सैनिक अंताजी मानकेश्वर  ने कुंजपुरा, मे अपनी सेना मे शामिल किये थे, उन्होने भी मोका देख पाला बादल दिया, मराठो को लगा पीछे से कोई अब्दाली की सेना ने हमला कर दिया, 15-20 मिनट मे विश्वाश राव की मृत्यु, मराठा सरदारों का युद्ध भूमि से हटना, २००० अफगान जोकि मराठो के साथ थे, उनका पाला बदलना, यह सब देख लगभग 15-20 हज़ार ओर मराठा सैनिको ने युद्ध भूमि को छोड दिया।

युध्भूमि छेत्र 1-2 किलोमीटर से अधिक में फेला हुआ था, भाऊ अभी भी लड़ रहे थे, उनके साथ, बाजीराव मस्तानी के पुत्र समशेर बहुदुर , तुकोजी , जानकोजी, यशवंत राव पवार, महादजी सिंधिया सहित हुजुरात की सेना थी, लगभट 3-4 घंटे,  मराठा वीर लड़ते रहे…

अभी भी मराठाओं की अग्रिम सैन्य पंक्तियाँ काफी हद तक बरकरार रहीं, पर अब मराठा तोपे शांत हो चुकी थी, इब्राहिम खान गार्दी ने युद्ध भूमि नहीं छोड़ी, उन्हें बंदी बना लिया गया, अब्दाली के पास कुछ हल्की तोपे थी, जोकि ऊँटो पर रख कर चलाई जा सकती थी, अब्दाली ने बहुत ही समझदारी से उनका प्रयोग किया, जहाँ भी मराठा सेना लड़ रही थी, उनपर बहुत पास जाकर तोपों से हमला किया गया, मराठो के पास इन हल्की तोपों का कोई जवाब नहीं था, पर मराठा रुकने को राजी नहीं थे, वो तो बस मर कर अमर हो जाना चाहते थे, एक एक कर सभी बड़े मराठा सरदार मरे गए।

देर शाम होते होते…लाशों का भंडार लग चुका था, जानकोजी पकडे गए, घायल शमशेर बहादुर को मराठा सैनिक युद्ध भूमि से बहार निकालने मे सफल रहे, पर वो भी जी नहीं पाए,  देर रात युद्ध रुका चूका था, बचे हुए मराठा सैनिक भाग निकलने मे सफल रहे, तुकोजी, यशवंत राव पवार मरे गए, भाऊ का कुछ पता नहीं चला, अगले दिन पंडित काशीराम को उनका शव मिला, उनके कपड़ो से उनकी पहचान हो पाई.

अब्दाली की सेना ने, लगभग 40-50 हजार तीर्थयात्रियो को भी मार डाला, कुल मिला कर ८० हजार से १ लाख लोक एक ही दिन मे मरे गए.

युद्ध के अगले दिन , पंडित कांशीराम को लगबह 30-32 जगह लाशों के टीले बने मिले…अफगान सिपाही लगप्भा 8-10 हजार मरे गए, भाऊ चाहते तो अपनी जान बचा सकते थे, पर उन्होने ज़िम्मेदारी लेते हुए, अपनी जान मात्रभूमि पे न्योछावर कर दी।

29 जनवरी को अब्दाली दिल्ली पंहुचा, मराठो ने पहले ही दिल्ली का किला खली कर दिया था, आप मराठो की ताकत का आंदजा इस बात से लगे सकते हो की, अब्दाली ने दिल्ली मे दरबार लगाया ओर शाह आलम को मुग़ल बादशाह मान लिया, जिसे मराठो ने पहले ही बादशाह घोषित कर दिया था, नजीब को लगा की दिल्ली उसके अधिकार मे होगी, पर अब्दाली ने कोई भी नया परिवर्तन नहीं किया, नजीब को कर वसूल कर अब्दाली के पास जमा करने का आदेश दिय, सालाना 40 लाख कर जमा करने का आदेश दिया ।

अब्दाली ने जाते जाते पेशवा को को पत्र लिखा, की भाऊ तथा विश्वास राव बहुत वीरता से लड़े, मैं युद्ध नहीं चाहता था, उन्होंने ही मुझ पर आक्रमण किया, अब्दाली आगे लिखता हें, दोनों ताकते आपने छेत्रो मे राज करे। कह कर आबदली दिल्ली से चला गया ।

नजीब चाहता था की, अब्दाली पुणे पर हमला करके, मराठो को ख़तम करे दे, पर अब्दाली नहीं माना, उसे पता चल चूका था, की 50 हज़ार की सेना के साथ, पेशवा युद्ध के लिए दिल्ली की ओर आ रहे है।

मराठो का उत्तर अभियान जो की 1952 से शुर हुआ, इस युद्ध की हार से पूरी तरह रुक गया, हालाकिं मराठे दक्षिण मे अभी भी सबसे बड़ी ताकत थे। 1768-69 मे मराठो ने पेशवा माधवराव के आदेश पर एक बार फिर उत्तर का अभियान शुरु किया, इस अभियान के प्रमुख थे ॥ रामचन्द्र गणेश कनाडे,विसाजी कृष्णा बिनीवाले

ओर महादजी सिंधिया, 1771 मे एक बार फिर, दिल्ली को मराठो ने अपने कब्जे मे ले लिया, पर अब उनका दुश्मन नजीब  ना होकर ईस्ट इंडिया कंपनी थी ।

अब्दाली ने पेशवा को लिखे अपने पत्र में लिखा:

हमारे बीच दुश्मनी का कोई कारण नहीं है. आपके पुत्र विश्वासराव और आपके भाई सदाशिवराव की युद्ध में मृत्यु दुर्भाग्यपूर्ण थी। भाऊ ने लड़ाई शुरू की,इसलिए न चाहते हुए भी मुझे जवाबी लड़ाई लड़नी पड़ी. फिर भी मुझे उसकी मौत का दुख है. कृपया दिल्ली की अपनी संरक्षकता पहले की तरह जारी रखें, इसमें मेरा कोई विरोध नहीं है। केवल सतलज तक पंजाब को मेरे पास रहने दो। शाहआलम को पहले की तरह दिल्ली की गद्दी पर पुनः बिठायें और हमारे बीच शांति और मित्रता बनी रहे, यही मेरी प्रबल इच्छा है। मुझे वह इच्छा प्रदान करें.

वास्तव पानीपत मे अगर कोई जीता था तो वो थी ईस्ट इंडिया कंपनी ॥ 1764 मे बक्सर जीत का साथ ही पूरे उत्तर भारत पर ईस्ट इंडिया कंपनी का अधिकार हो गया था ।

Third battle of Panipat in Hindi

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